फणीश्वर नाथ रेणु ( जन्म :४ मार्च १९२१ – मृत्यू :११ एप्रिल १९७७)
“मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन की मरु मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगनित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उतारे!
हौले, हौले दखिन-पवन-नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे
कब से तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे”
यह कविता जीवन और प्रकृति की अद्भुत काव्यात्मक छाया प्रस्तुत करती है। कविता में एक गहरी धारा है, जहाँ मनुष्य के भीतर छुपी हुई ऊर्जा और प्रकृति के सुंदरतम रूपों का चित्रण किया गया है। कविता का आरंभ मन के आसमान में पंख पसारे उड़ते हुए पखेरुओं से होता है, जो अनवरत उड़ते रहते हैं, जैसे हम भी जीवन में कभी न थकने वाली यात्रा पर होते हैं। मन की मरु मैदान की गूँज, सोई नदियों का जागना, और तृण-तरू का फिर से जीवन से भरना, यह सब जीवन के पुनः जागरण का संकेत देते हैं। यहाँ पर कवि ने न केवल प्रकृति के पुनर्निर्माण को दिखाया है, बल्कि मन की अंतर्निहित आकांक्षाओं और गहरे भावनाओं को भी उजागर किया है। कवि का सवाल “यह कौन मीत अगनित अनुनय से, निस दिन किसका नाम उतारे?” से यह बोध होता है कि कवि ने किसी अदृश्य शक्ति की ओर संकेत किया है, जो निरंतर अपना नाम और पहचान छोड़ती जाती है। यह अनुग्रह और प्यार का प्रतीक है, जो जीवन की सच्ची ऊर्जा का स्रोत है। दखिन-पवन, बकुल-शिरिष, कचनार और मधुरी-मंजरी जैसे रूपक प्राकृतिक सौंदर्य और जीवन के विभिन्न पहलुओं की ओर इशारा करते हैं, जो एक सुंदर पारिस्थितिकी और प्रेम के भाव को साकार करते हैं। इस कविता में एक निःस्वार्थ और शक्तिशाली प्रेम की आह्वान है, जो हमें जीवन के कठिन समय में संजीवनी शक्ति देता है। कविता में समृद्धि और हरियाली, प्राकृतिक रूपों के खिलने, और अदृश्य प्रेम की धारा को सुंदरता से व्यक्त किया गया है। यह हमें हमारे संघर्ष और कठिनाइयों के बावजूद सजीव रहने और उनके बीच से सुंदरता खोजने की प्रेरणा देती है। संक्षेप में, कविता में प्रकृति, जीवन, और प्रेम का गहन संबंध है, जो हमें निरंतर जागरण और प्रयास की ओर प्रेरित करता है।
और यह सुंदर कविता रचनेवाले है फणीश्वर नाथ रेणु. एकदम ठेठ अंदाज और गांव-ज्वार की भाषा में साहित्य का सृजन जो आम लोगों की समझ के लिए काफी था. आंचलिक साहित्य की इस नई विद्या का ईजाद रेणु के नाम रहा. लोगों ने उनकी रचनाओं को अपने हृदय से लगाया. रेणु की लिखी एक कहानी ‘ठेस’ ऐसी जिसे पढ़कर हर नन्हा मन रोया. रेणु की किताबें हिंदी साहित्य के शोधकर्ताओं को आज भी सबसे ज्यादा पसंद आती हैं. रेणु को पहले आंचलिक उपान्यास ‘मैला आंचल’ के लिए ही उन्हें २१ अप्रैल, १९७० को तत्कालीन राष्ट्रपति वाराह वेंकट गिरि ने पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया था. फणीश्वरनाथ रेणु को हिंदी साहित्य में एक आँचलिक युग की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। यद्यपि आँचलिकता की प्रवृति का आरंभ प्रेमचंद युग से ही दृष्टिगोचर होने लगा था और आँचलिक उपन्यासों की विधा का सूत्रपात भी हो चुका था, लेकिन रेणु के उपन्यासों और कहानियों के साथ इसका पूर्ण विकास हुआ। उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में ग्रामीण जीवन का गहन रागात्मक और रसपूर्ण चित्र खींचा है। उनकी विशिष्ट भाषा-शैली ने हिंदी कथा-साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया। ‘परती परिकथा’ उपन्यास और ‘मारे गये गुलफाम’ कहानी, जिस पर राजकपूर अभिनीत प्रसिद्ध फ़िल्म बनी, के साथ उनकी ख्याति और बढ़ गई। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त उन्होंने निबंध, रिपोर्ताज़, संस्मरण आदि गद्य विधाओं में भी लेखन किया और व्यापक रूप से सराहे जाते हैं।
भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया और उन पर डाक टिकट भी ज़ारी किया गया है।
फणीश्वरनाथ रेणु का लेखन भारतीय साहित्य में एक अमूल्य धरोहर के रूप में देखा जाता है। उनके उपन्यास और कहानियाँ आज भी भारतीय समाज की समस्याओं और वास्तविकताओं को स्पष्ट रूप से चित्रित करती हैं। वे एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज को जागरूक किया और उसे बेहतर बनाने का प्रयास किया। उनका योगदान आज भी हिंदी साहित्य के अध्ययन और समझ में महत्वपूर्ण है। उनकी कृतियाँ आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।
फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्य एक प्रेरणा है, जो हमें अपने समाज की सच्चाई से रूबरू कराता है और सामाजिक बदलाव की दिशा में सोचने के लिए मजबूर करता है।
फणीश्वरनाथ रेणु जयंती पर नमन !

Author: मुख्य संपादक:- राहुल आवटे
उपसंपादक :- उमेश वैद्य ______________________________________ आवाज रयतेचा वृत्तपत्र स्वराज्याचे...!